आक्रामक होती संतानें और विवश परिजन
(मोहन वर्मा, देवास)
कहा जाता है समय परिवर्तनशील है। पल पल बदल रहा है। जो कल था वो आज नहीँ है।जो आज है वो कल नहीँ रहेगा। मगर जो कल था, आज है और आने वाले कल में भी रहेंगे वो है हम सबकी भावनाएं अपेक्षा, उपेक्षा, अच्छाई, बुराई, उम्मीद, आशा,निराशा,दुःख,सुख,स्वार्थ,कठोरता,दया,ममता,और और बहुत कुछ।
चुकि मनुष्य को ईश्वर की अनुपम कृति कहा जाता है,जो पशुओं और जानवरों से अलग है और अपने दिमाग के अनुसार सोचता विचारता है, समझ और नासमझी के अनुसार व्यवहार करता है इसीलिए ये बात जरूर है कि संस्कारजनित ये सब भावनाएं और इनका ग्राफ, उतार चढ़ाव निश्चित ही समय के साथ उपर नीचे,कम ज्यादा होता रहता है।
माता पिता और संतानों का रिश्ता तमाम रिश्तों में सबसे अलग है। जो निसंतान होते है वे ताउम्र यहां वहां मन्नत मांगते है, तमाम दरवाजे खटखटाते है कि सन्तान सुख देख सकें। संतान सुख नहीँ तो खानदान आगे कैसे चलेगा। जिन्हें ईश्वर ने बेटियाँ दी है वे बेटों की आस लगाये रखते है कि बेटा नहीँ तो कुल को कौन तारेगा ? अगर नसीब मे बेटा या बेटी भी हो और दुर्भाग्य से शारीरिक,मानसिक कमियों के साथ पैदा हुए हो तो भी ताउम्र परिजन अपने कर्तव्य निभाते है।
इसी तरह हर माता पिता चाहते है कि उनके बच्चे अच्छे से पढ़ लिख कर उनका तो नाम रोशन करें ही साथ ही खुद का भविष्य भी सुनहरे अक्षरों से लिखे। इसके लिए ताउम्र परिजन कैसे कैसे पापड़ बेलते है किसी से छुपा नहीँ है। बच्चों को बेहतर शिक्षा मिले,वे सबसे अलग,ऊंचाईया छुए,जिस पर वे गर्व कर सकें इसके लिए परिजन कई बार कर्जे के पहाड़ों तले दबकर भी उफ्फ तक नहीँ करते।
मगर इन दिनों देखने में आ रहा है कि उच्च शिक्षा के जरिये अपने उज्ज्वल भविष्य के चमकीले रास्ते चलते बच्चों की धुँधलाती निगाहों को परिजनों के संघर्ष नजर नहीँ आ रहे। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जैसे किस्से रोजाना सामने आ रहे है उनके अनुसार सुदूर प्रदेशों से लेकर विदेशों तक में जॉब कर रहे बच्चों के लिए परिजन प्राथमिकता पर नहीँ है। नौकरी, छुट्टी पैसा ही उनकी प्राथमिकता है। इधर माता पिता अकेले संघर्षरत रहते हुए बीमार लाचार स्थिति में उन्हें याद करते रहते है और उधर बच्चों के पास परिजनों से दूर रहने के कई कई बहाने हैं।
रोज सामने आते किस्सों के अनुसार तो पल पल बच्चों को याद करते, बीमार होकर अंतिम साँस लेते परिजनों का इलाज या अंतिम संस्कार भी पड़ोसियों को करना पड़ता है क्योंकि बच्चों के लिए आना सम्भव नहीँ।
विवश परिजनों के सामने एक दूसरी स्थिति संतानों द्वारा प्रापर्टी को लेकर उनका आक्रामक रवैया भी है जिसमें वे अशक्त परिजनों के सामने निर्दयी रुप में भी सामने आते नजर आ रहे है। जिस तरह समाज में स्वार्थ सर्वोपरि हो रहा है,सारे रिश्ते नाते पर धन दौलत संपत्ति हावी है ऐसे में आक्रामक संतानों और विवश परिजनों की कहानी खून खच्चर से होती हुई अपराधों तक भी पहुंच रही है।
क्या आक्रामक होती संतानों और विवश परिजनो की इस स्थिति के लिए बच्चों के प्रति परिजनों के प्रेम कर्त्तव्य और अपेक्षाओं को दोष दिया जाये या फिर संस्कारविहीनता को दोष दिया जाये। समाज मे बढ़ते स्वार्थ और रिश्तों से गायब होते लगाव को दोष दिया जाये या फिर गुम होती इंसानियत को दोष दिया जाये।
विश्व के दूसरे देशों से अलग हमारे संस्कार,दया,ममता
हमारी धरोहर है। ऐसे में आक्रामक होती संताने और विवश परिजन जैसे विषय को अनदेखा नहीँ किया जा सकता।
( गुड ईवनिग,इंदौर में प्रकाशित)